Thursday, January 18, 2018

"जोगिया मन का आत्मानुलाप पलाशपुष्प से"


 "मन हुआ पलाश" काव्य संग्रह_ रश्मि शर्मा" :
 एक पाठकीय समीक्षा - कण्डवाल मोहन मदन 
" तन का वनफूल खिला - खिला सा / बिछुड़ा कोई मीत कल मिला - मिला सा / अलसाई प्रीत का / रतनार अक्स झिलमिला सा / किस का गुंजलक याद कर विहँस पडी हो अँगारमणिका ?.." (अंगार मणिका से ही )....
एक कच्चे जुलाहे का कविता चादर के ताने बाने को प्रकृति परिवेशीय बहुरँगीय लच्छियों से बुनने का प्रयास है या कँहे कि बरसों बाद लौटकर गाँव के सूने पडे़ रहवासे मे अतठस्थ हो उगी दूर्वा को निकालने की जद्दोजहद से उपजे श्रमस्वेदबिँदु । यह ढा़ई अक्षरजनित अनहद नाद की साधना को यथाशक्य साधने का प्रयास भी हो सकता है और फीनिक्स पक्षी सी सुँदरवनीय कल्पवृक्ष की अवसादालिप्तता सँग रक्तिमाभा सँपन्न बुराँशी पहाडों से अलग पलाश-पुष्पाच्छादित अर्धमैदानी ढ़लानों की गँधहीनता के उल्लास-सँत्रास के लयिक कहन भी। यह एक नदी के सोचने के बाद उपजे अशेष रहे उपालम्भी और उलेहनाओं के आत्मानुलापों का उपाख्यान भी सँभव।
वैशाख, शुक्ल पक्ष की अक्षय तृतीया, अमित्युशाभिरुपी अकुलाहट सँग उर्वर भूपाल अयन, और प्रियदर्शी-चेतन जी की शिल्पकथ्य सहकारिता से उपजी काव्य सँवेदनायें मनों के रिक्त कोनों मे प्रविष्टि जरुर लेँगी।शेष तो पाठक ही तय करेँगे।
पुरावाक में कह दिया गया है , कि कविता प्रेमिल साँसों की आवाजाही की आश्वस्तता है। मन मे दबी कस्तूरी सुवास के प्रस्फुटन की सौम्य परिणति है। यँहा पल-पल छवियों की दृश्यता-अदृश्यता भी है तो रेचनकर्म की अपारम्परिकता सँग भाविक हूक भी। मँचीय मधुशालीयता नही इनमे, बल्कि कनुप्रियता है, पाठक हेतु अश्रमपरकता भरी आनँदमग्नता है।, विरल प्रतीकों और बिम्बों की कुशल चितेरी रश्मियाँ अर्थबोधों की सँश्लिषता से सँपन्न कवयित्री सच मे मनप्राँगण मे उग आये कुश उखाड़ने मे सिद्धहस्त है।
'जोगिया पलाश' (जिसकी कवयित्री द्वारा गाहे-बगाहे वर्णन खण्डकाव्य या गद्यगीत बनने मे मुझे शक नही कुश के और यायावरी रेखाँकनों के अलावा) के इतर बहत्तर कविताओं मे सत्ताईस बार प्रकृति प्रेमी मन पलाशपुष्पाच्छादित हुआ कवयित्री का, सत्ताईस कविताओं मे। जहाँ चार कवितायें बिल्कुल विलग रँगो की है, उनमे दो-दो प्रेरणा और तँज भरी। बाकी इकतालीस कविताओं मे प्रेमपराग की छुअन, मिलन-बिछुड़न, अनबन, उलाहनों की भरमार, उलेहनाओं की अचूक मार, नदियाँ, निर्झर, स्मृतियों के वात-निर्वात, कलरव सँग चहचहाहाटें और सुगबुगाहट भी है।
पहले विलग सी चार कविताओं का जिक्र जरुरी है। पहली है उनमे,"टूटने को है"; चीँटियों की सतत सँघर्ष गाथा से प्रेरित मन की उम्मीद ,सपने की ख्वाहिश की नाउम्मीदी मे बदलने की व्यथा का मौन क्रँदन अबूझ है मुझे, पाँव अडा़ये भाग्य समक्ष। "सवाल".मे उकेरित सवाल, आधी आबादी की अस्मिताओं के बुनियादी सवालो की पड़ताल है। उदर तृप्ति से सुँदरता और सजने की चाहना से बहुत बडा़ सवाल जातिहीनता और स्व के अस्तित्व की आनँदमग्नता का जो ठहरा। जँहा "कश्कोल" (विरोधाभासों के सँगमन की ) सुखक्षणभँगुरता और चिरसँगिनीवेदना की बात करती है। वहीं "औ गौरैया" पहाडी़ घिण्डुली के कण्क्रीट शहरी वनों मे बेघर होने.का दारुण गीत। पर आशातीत दूर्वा पल्लवित होने की कामना अभी भी।
तँज भी पसरा है "हम डरते हैं" मे जिँदगी की गलाकाट अँधी असँवेदी भागमभाग मे चयनित चुप्पियाँ, आक्रामक्ता, स्वप्रियजनों को भी मात्र एक प्रतिद्वंद्वी करार देने को प्रतिबद्ध हैं। हर शाम मै "करती हूँ (उसका) इँतजार" ....................जो..../विदाई वाले चुँबन के साथ/ अपनी जुबान पर उगाये/ तेज नाखूनों को/ मेरी पीठ पर गडा़/ कोई ऐँसी बात कह जाता है/ जिसका दँश...../ जो चुभन और कड़वाहट के/ मकडज़ाल मे.उलझाकर / ......खारे आँसुओं या पसीने से उदासीन देर रात तक अथाह मशीनी प्यार दर्शा सो जाता। और यह बदले, इस सुबह की आश लिये वह हर शाम उसी व्यवहार चाक पर पिसने को अभिशप्त।
"ग्रहण" मे भी चँद्रसूर्य ग्रहणों के नैपथ्य मे शहरों की दौड़ती भागती मासूमो, कामगारों और जनता की बेबसी पर व्यवस्था और अमानवीय व्यक्तित्व जनित सँत्रास पर बखूबी तँज है। अब.मेरे सामने.दो.तरह की कवितायें है जो कुछ प्रकृति मे प्रेम रचती उन सँग मन पलाशी होने की बात करती है। और दूसरी तरफ है स्वयँ से, प्रिय से, पेँसिल, घर , नदी , वृक्ष, घास, पुष्प से आत्मानुलापी हर रँग की कवितायें, उलाहनों भरी, सहमति -असहमति वातायनो से झाँकती, तरेरती, सोचने को मजबूर और विस्तार सँग पाठकीय अनुभूतियों को सटीक कविताँश उद्धरण सँग युग्मित करने को भी उकसाती अभिव्यक्तियाँ।
बनारस के मणिकर्णिका घाट के शाश्वत अन्तसत्य के सौँदर्य सँग श्वेत कासफूल पर लिखा आख्यान बरबस याद आता मुक्ताकाशी अँगारमणिका से। छायावाद जैँसे लौट आया हो "अँगारमणिका" मे। अलसाई लाज.मे.गडी़ अँगारमणिका, जोगिया पलाश तले उफ्फ , तन का.बनफूल, अलसाई प्रीत, रतनार अक्स, गुँजलक स्मृति से विहँसना, पलाश मकरँद भरी माँग, और पुरवाई को आँचल मे समेटने वाली अँगारमणिका तुम बेहद खूबसूरत कल्पनाकर्म हो इस सँग्रह की। उधर जोगिया पलाश फागुनी दोपहर मे सिँदूरी अबरीली, शाम को टहनी और फुनगी पर चाँद टिकाये रँगरेज विरह मे टेसू रँग से ज्यादा प्रेमरँग । यह दूसरी सुँदर रचना इस सँग्रह की।
"मगर कल शाम देखा / 'जोगिया पलाश' की / टहनी पर / टिका था चाँद/ मैंने पूछा उससे / क्या इस बरस भी / बिन साजन / बीतेगी होली /......मेरे रंगरेज़ को तूने / क्यों भेजा परदेश / तेरे इन चटक रंगों से / अब मुझे क्या काम / .....ऐ चाँद / सारी दुनिया रंगी होगी /आज टेसू रंग से / पर मुझ विरहन को नहीं / किसी रंग का भान /... हो सके तो / उस निर्मोही को / भेज देना मेरा ये पैगाम/ रंगी हूं उसके प्रेम रंग में / जब आओ तब रंगना इस तन को/ हरे, पीले , गुलाबी और लाल रंगों से " (जोगिया पलाश से ही)........
जागेश्वर भ्रमण मे चीड़ पर भी कवयित्री हरी दूर्वा सी आरोपित हो उर्ध्वगामी होने का सपना सँजोती है तो, भरत के ननिहाल से लौटते अयोध्या मार्ग मे पडे़ शालवन और चीडों पर बहती शीतल हवा से लगभग निर्वसनी पँचपत्रों.वाले इठलाते सेमल का दृष्टिचित्र मनमोहक है। हवा का गमन ऊँचाइयों. से पठारी और मैदानी भागो की ओर का भान भी स्वत: होता है। ताड़ से छिटकी चाँदनी , अमलतास की पीतस्वर्णाभ कलियों सँग बीथोवन धुन और अमलताश पुष्पों का झरते रहना अश्रु मानिँद अजब-गजब कल्पनायें।
स्याही से लिखे हर्फ कविता मे पार्क.की बेँच, कनेरपुष्प हथेलियों की लकीरों सँग कौआ उड़, मैना उड़, तोता उड़ के खेल- खेल मे कई बार तोते सँग पेड़ उडाने की आतुरता देखते ही बनती। अमलतास वाले शहर की एक बानगी,............ "जाना/पहली बार/कि इँसान ही नही / शहर भी करते हैं/ कारोबार/ समूचा वक्त/मिलन.का /बिसरा दिया जहन से/............. शैफाली, हरसिंगार, रजनीगँधा के फूलोँ के नैपथ्य मे उसके दिल के मौसम के पड़ताल की है नायिका ने "गुजरे मौसम की महक" मे। हरी घास की चटाई पर जैकरैण्डा का नीलाभ कँचन वैभव और नीलाँका.गगन की साक्ष्यता सँग त्राटक, सम्मोहन, मारण मोहन उच्चाटन की व्यर्थता के
अभिनव प्रयोग।
'कुछ.शेष.नही' रहता जब.......................हरी.धरा के सीने से/ जब हरापन सोखता है कोई/ रिश्ते को.नीँबू सा/ निचोड़ता है कोई/ तो क्या बचता है फिर/ कसैलापन, सूखापन। भूरेपन से न बच पाता तब कोई। 'धरा पर बसँत', अमराई मे मकरँदशोधी आलिँदों का गुञ्जार है, सरसो, नाना वल्लरियों, सेमल, महुआ,टेसू सँग चिरैया के स्मृति केसर का महारास है ऋतुराज आगमन पर। घने दरख्त मे पसरा जँगल.का एकाँत,उँगलियों की जुम्बिश, आवाज की लरजिश, मौन प्रेम और मन की रौशनी से दूर भागता जीवनतम बाँधता एकटक।
पोखर किनारे के दहकते डैफोडिल्स, रक्ताभ गुलमोहर, नरगिस का आभास देते अतीत स्मृतिदृश्यों को, मोतियाबिँद उतर आयी आँखों.को। बसँत.कै.इस मौसम मे सब बासँती भी नही, मसलन छलनाओं के जाल सतरँगी है। रँगाकर्षणों से उपजा समर्पण एक सच के परदे के हट जाने के बाद जीवन बसँतपथ अब, बदरँग हरैलापन और वादो के सब्ज रास्तों से भटकने को अभिशप्त सा हुआ जा रहा है। सबसे छोटा दिन और लँबी रात का उदासी भरा पर जादुई शब्द तिलिस्म वाकई बिना खुद पढे़ समझना कठिन। नीम आसमान का नीलापन अपनी टहनियों मे बाँधता तो.पोखर.के पानी.मे.देर शाम टिमटिमाते तारों की डुबकी और मुँह छुपा आसमान से बेदखल चाँद कँही रोता दिखता नायिका को। झीँगुरगान पर प्रतिबँध लगा सा। पाबलो नेरूदा सा कविमन उफ्फ, कितनी निस्सीम कल्पनाये रचता। एक और बेहतरीन छायावादी सी कविता।
धूप मे छुप गये वक्त की परछाई को अँधे सा टटोलना,काकक्रँदन से चिहुक उठना, आँगन मे टोटी नल से सतत पानी टपकना और फेरी वाले की आवाज से निस्तब्धता का ह्रास डराती है।सच मे हम डरने लगे है; एक और चिँतनशील कविता। सपने बुनती लडकी की तरह जिँदगी प्यारी लगने लगती एक पल। तो दूसरे पल प्रेमवश झुकने को ताड़ की तरह ऐँठन भरकर गुलामी समझने की भूल सब जागीरों से बेदखल करने की हिमाकत भी करने मे समर्थ यह नायिका।
'जाने कैँसी सुबह है', मे प्रलयकारी शब्दचित्र उपस्थिति झकझोरती है तो 'न सीँचो' मे सीँचकर तरूवर बनने की तमन्ना का गला घोँट कपूर बन मुठ्ठी मे बँद रखने की आत्मघाती गुजारिश है, जो दुखद सी। 'उड़ चुका प्रेम का पाखी' एक.लँबी कविता प्रगाढ़ गुँजलकीय बँधनो को तोड़ती है तो शाम का साँवला अक्स किसी के पतझड़ को जमाने का बसँत बनाने को उतारु। टूट.गया नाता की आशावादिता, चैत्र के बादलों की शस्यश्यामलता रँग मे भँग डालती उमड़-घुमड़ पर उलाहनों का दौर और सूखे सब्ज रिश्तों के पीले पड़ रिसने की प्रक्रियाओं का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी तो।
अब बचती है आत्मानुलापी इकतालीस या बयालीस कवितायें, जिनमे.........................ठहरो जरा/बेरँग लगती जिँदगी मे एक बार/साक्षी बनकर देख लो/कोई भी गया वक्त बुरा नही होता।.....(ठहरे लम्हों मे).........
एक और आत्मालापी और यथार्थतः सही कविता है, "उदास होना.लग्जरी है".....उदास होना
लक्‍़जरी है मेरे लि‍ए.......
"जबकि‍
कपड़ेे धो-सुखाने के बाद
अभी भी
बच्‍चों के जूते पर पालि‍श बाकी है ।
उदास होना
लक्‍़जरी है मेरे लि‍ए
जबकि‍
दि‍न-रात की चक्‍की में
उम्‍मीदें पि‍सती रहती हैं
भावनाओं की खि‍ल्‍ली
उड़ाता पाया जाता है
वो हर इंसान
जि‍स पर भी भरोसा कर
अपने सपने सौंपे
और चंद झूठे वादों को
खजाना समझ
छाती से लगाए फि‍रते रहे।
उदास होना
लक्‍़जरी है मेरे लि‍ए
जबकि‍
भूखी है एक्‍यूरि‍यम की
सुनहली मछलि‍यां
छत पर इंतजार में बैठे हैं
सैकड़ों कबूतर
कुछ दानों की आस में
झपट पड़ते हैं आहट पा
और मैं
गहराती उदासी में डूबती
जबरन रोकती हूं
आंसूओं को छलकने से।
उदास होना
लक्‍़जरी है मेरे लि‍ए
जबकि‍
कुकर में सीटी आनी बाकी है
लौटते ही होंगें बच्‍चे स्‍कूल से
गेट से ही चि‍ल्‍लाते
मां, कहां हो, भूख लगी है
अब तो
उदासी खुद कहेगी मुझसे
मुस्‍कान तेरी राह तकती है
जा, कि‍
उदास होना वाकई लक्‍़जरी है मेरे लि‍ए"।............................
मै तीखी गहरी लकीर /खीँचना चाहती हूँ/उसके वजूद मे /इस कोशिश मे /लगातार टूटती जाती हूँ /छिलती जाती हूँ/........ हैरत है तो इस बात पर /कि बेशुमार. दर्द पर /एक शब्द प्यार अब भी भारी है।.............'परिधि वाला.प्यार में ', जँहा सहभागिता, समस्वतँत्रता और समसजा की बातें हैं , वहीँ 'मैँग्रोव' और मै एक.और खूबसूरत रचना है रेचनशिल्प कथ्यसँश्लेषण के भाव से।..................
मुठ्ठियों के बँद और खुले होने.का.अँतर कितना विशाल है , यह 'मुठ्ठियाँ खुली है' का कथ्य है जहाँ, तो "तिलिस्म बुनती रात" रचनाकर्म की परिपक्वता दर्शाती।..........तुम्हें पता है /एक तुम्हारा होना/ सब होने पर भारी है। (तुम नही हो,तो क्या हो?)..............
'आज ये साँझ ढ़लती क्यों नही', 'पहली बूँद.के.इँतजार मे', 'कोई.नही बोलना',' देखना इन उदास आँखौं की तरफ',' होता है धुँआ',' घर', 'सोने-जागने की रस्म', 'सर्द रिश्ते', 'एक खुशी है छिटकी', 'सीने मे झेला है,मेरी आँखों मे', 'एक.उफान', 'तुम याद आओगे', 'मेरा.नाम', 'बदल गये हो तुम', 'खर्च हुई उम्र तक', 'चोरी हो गयी धूप',' दूर जाते तुम','रब तू मेहर रखना', 'मिलन के इँतजार मे', 'जी नही लगता', 'मिलते है बिछड़ने कुछ लिये', 'मरे रिश्ते', 'इश्क की नदी, 'दस्तक' , 'अनसुनी करें',' सरहद पार चली आई हूँ', 'जो मै तोड़ दूँ', 'याद करें', 'अजनबी', 'भरोषे की आँच', 'बहुत अजनबी लगते हो तुम', अन्य आत्मालापी कवितायें है।
...................जिम्मेदारियां बडी़ होती है/ किसी की मौत से/मन से मरे रिश्तों की अर्थी/काँधे पर धर शमशान पँहुचाना/बहुत आसान होता है.......(मरे रिश्ते से)......
...............अब हम /घडी़ के काँटे हैं/मिलते ही हैं पल को/बिछड़ने के लिये.....(मिलते हैं बिछड़ने के.लिए).............
"बहुत अजनबी लगते हो तुम" एक समग्ररूपेण उपालँभी कविता है। जो अशब्दजनित हैं रिश्तों मे।............
चीड़ के अलावा कवयित्री की निगाह पहाडी़ नदी पर भी पडी़ है। उसकी पाटों को अतिक्रमणकारियों ने लील लिया है और बाँधों.ने नीला.जहर घोल दिया है उसमे ठहरे पानी का।जमी आसँमा के दो पाटों मध्य कसमसाती पहाडी़.नदी जो इश्क.की पहचान थी, छटपटाहट मे है।
72 मे से 27 दफा जोगिया मन का आत्मानुलाप पलाशपुष्प से : "मन हुआ पलाश" में रश्मि शर्मा की उपजी काव्य सँवेदनायें सुधी पाठको के मनों के रिक्त कोनों मे प्रविष्टि जरुर लेँगी। शेष तो वे ही तय करेँगे। विरल प्रतीकों और बिम्बों की कुशल चितेरी रश्मियाँ अर्थबोधों की सँश्लिषता से सँपन्न कवयित्री सच मे मनप्राँगण मे उग आये कुश उन्मूलन में निष्णात है। इन कविताओं मे प्रेमपराग की छुअन, मिलन-बिछुड़न, अनबन, उलाहनों की भरमार, उलेहनाओं की अचूक मार, नदियाँ, निर्झर, स्मृतियों के वात-निर्वात, कलरव सँग चहचहाहाटें है। तो शहरों की दौड़ती भागती मासूमो, कामगारों और जनता की बेबसी पर व्यवस्था और अमानवीय व्यक्तित्व जनित सँत्रास पर बखूबी तँज है। स्वयँ से, प्रिय से, पेँसिल, घर , नदी , वृक्ष, घास, पुष्प से आत्मानुलापी हर रँग की कवितायें, उलाहनों भरी, सहमति -असहमति वातायनो से झाँकती, तरेरती, सोचने को मजबूर और विस्तार सँग पाठकीय अनुभूतियों को सटीक कविताँश उद्धरण सँग युग्मित करने को भी उकसाती अभिव्यक्तियाँ है रश्मि शर्मा (Rashmi Sharma) की पूरे काव्य संग्रह में। छायावाद जैँसे सच में लौट आया होे।
उन्ही के शब्द पुनश्च ........
"उदास होना
लक्‍़जरी है मेरे लि‍ए
कि‍ एक ही इंसान
बार-बार क्षमा मांग
वही छल दुहराता रहे
तो क्षमता खुद ब खुद
पैदा हो जाती है
बर्दाश्‍त करने की
तब अपनी ही उदासी का
मजाक उड़ाता है मन
कहता है
हजारों काम अभी बाकी है
धोखेबाज दुनि‍या के बीच
अब भी
तेरे बच्‍चे की मुस्‍कान बाकी है।
उदास होना
लक्‍़जरी है मेरे लि‍ए
कि‍ जि‍न्‍हें
रि‍श्‍ते संभालना नहीं आता
ऐसा साथ होने से
ऐसों के लि‍ए रोने से
कहीं बेहतर है
चि‍डि‍यां, मछलि‍यों और
फूलों से दोस्‍ती करना
और
नन्‍हें से बच्‍चे की ऊंगली थाम
फि‍र से बच्‍चा बन
उनकी नजरों से दुनि‍यां देखना"।
शुभकामनाएं कवयित्री को भविष्य की रचना-कर्मता हेतु ...

1 comment:

Sweta sinha said...

वाह्ह्ह...बेहद उम्दा...विश्लेषण.. आपकी कविता संग्रह हम भी जरुर पढना चाहेंगे।
बेहद सुंदर और तिलस्मी शदों के जाल से बुनी आपकी कविताओं की विशेषता उत्कठ अभिलाषा जागृत करती है एक पाठक के मन में कि जोगिया पलाश का रंग कितना चटकीला होगा।
मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ आपको रश्मि जी।